इस गगन चलूँ, उस गगन चलूँ, मैं जीवन हूँ, न सहम चलूँ, पग-पग पर कांटें बिछे पड़े, सहते-सहते हर कदम चलूँ | बचपन न देखा है मैंने, न हि किशोरी का बल ही मिला, निर्भय होकर न चल ही सकूँ, न नव-युवती जीवन ही मिला | रग-रग में आग ही लपटें हैं, पग-पग पथरीली राहें हैं, टूटी-फूटी सी सड़कों पर, रोती माओं की आहें हैं | जीवित हूँ, हूँ पर निर्जर सी, सांसें हैं, वो पर आंहें हैं, सकुचाई सी, घबराई सी, धूमिल-धुसरित सी राहें हैं | शीशे के सपने लिए हुए, न इधर चलूँ, न उधर चलूँ, न घबराऊँ, न सकुचाऊँ, न रहम सहूँ, न रसम सहूँ | इक नया सवेरा लायी हूँ, नित नए ज्ञान का कंपन है, मस्तक न झुकनेवाला है, ये मानवता का 'मंथन है' | ...ऋतु की कलम से
'मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं' कभी साथ देना मेरा, तन्हा हूँ इस सफ़र में, ग़ुम कहीं हो न जाऊं, इस अजनबी से शहर में, न चाहूँ फिर भी दिल का राज़ ये खोलती हैं, ऐसा मैं नहीं कहता, मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं | बीच राह में छोड़ मुझे, मौजों में सहारा न देना, दूर होकर मुझसे तुम, नज़रों का इशारा मत देना, मैं आज भी वहीँ हूँ, तुम्हारे इंतज़ार में, नम रेत पर लिख रहा हूँ, नाम तेरा मझधार में | तेरे नज़रों के इशारों को गहराइयाँ तोलती हैं, आज भी मेरे आँगन में तेरी परछाइ याँ डोलती हैं, ऐसा मैं नहीं कहता, मेरी तन्हाईयाँ बोलती हैं |