विभक्ति प्रेम की और द्वेष श्यामल है अँधेरे में, तनी आवाज़, नैतिकता, समाहित मन के घेरे में, चवन्नी आठ, कंचा पाँच, लेके चल पड़ा इक दिन, फटी थी जेब, उसमे हाथ, चवन्नी था रहा मैं गिन | किनारा था सड़क का, और मेरे पास एक डिबिया, थी उसमे बंद माँ की आस, थे कुछ सपने मेरे कुछ ख़ास, मैं चलते-चलते न जाने, सिसक उठता था अनजाने, मैं कहता था वो लौटेगा, वो कहती थी, न जाने कब, मैं कहता था कि शायद प्रेम का आभास होगा तब, पहाड़ी पर खड़ा मैं बंद आँखों से हथेली में, उठा लाया, वो रिश्ते, जो थी, बीती इक पहेली में, उठा अपना मैं झोला, खोजता था खत् पिताजी का, जो भीगी थी अभी तक, और सिलवट पाँच थी उसमे | मैं अपनी लेखनी को दे रहा आवाज़ उनकी आज, सघन बदल भिगोता है अचानक तन को मेरे आज, कोई सुन ले मेरे क़दमों की खामोशी, मेरी आँगन की तुलसी, और मेरी लेखनी का राज़, सिसकते और सिमटते रास्ते ने, दी मुझे आवाज़, मेरी आँगन की तुलसी और मेरी लेखनी का राज़ | ...ऋतु की कलम से
बहुत उम्दा!
ReplyDelete"त्रुटियों के पन्ने रोज़ पलटते रहते हैं,
ReplyDeleteतृष्णा मन की व्याकुल गाथा कह जाती है"
बहुत खूब :))
b'ful ritu!
ReplyDeleteyes ritu u are right
ReplyDeletedesh or jati ke nam per har roj hajaro ko bharmate hai ,
phir bhi karoro ka ghapla karke sache neta kehlate hai,
kya yehi hindustan ki kahahi hai,
har dusri badi machli choti machli ko khati hai,
i'm left speechless. the slide really moved me
ReplyDeleteI reached your blog last week and have read the last few posts. Your posts are very well thought out and expressive. Very impressive.
ReplyDeleteI look forward to reading more such posts.
-Varun