त्रुटियों के पन्ने रोज़ पलटते रहते हैं, तृष्णा मन की व्याकुल गाथा कह जाती है, प्रतिपल मैं सोचूं, है छोटी सी यह सृष्टि, सागर में भी आकाश दिखाई देता है | है भाग्य मसीहा, सोच-सोच इतराऊँ मैं, संछिप्त कहूं या सदियाँ इसमें पाऊँ मैं, है रंगमंच जीवित कितना भड़कीला सा, निर्जीव-सजीव सा अपना पत्र निभाऊं मैं | ऋतु की कलम से..