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Showing posts from July, 2010

'रंगमंच'

त्रुटियों के पन्ने रोज़ पलटते रहते हैं, तृष्णा मन की व्याकुल गाथा कह जाती है, प्रतिपल मैं सोचूं, है छोटी सी यह सृष्टि, सागर में भी आकाश दिखाई देता है | है भाग्य मसीहा, सोच-सोच इतराऊँ मैं, संछिप्त कहूं या सदियाँ इसमें पाऊँ मैं, है रंगमंच जीवित कितना भड़कीला सा, निर्जीव-सजीव सा अपना पत्र निभाऊं मैं | ऋतु की कलम से..