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'रंगमंच'

त्रुटियों के पन्ने रोज़ पलटते रहते हैं,
तृष्णा मन की व्याकुल गाथा कह जाती है,
प्रतिपल मैं सोचूं, है छोटी सी यह सृष्टि,
सागर में भी आकाश दिखाई देता है |

है भाग्य मसीहा, सोच-सोच इतराऊँ मैं,
संछिप्त कहूं या सदियाँ इसमें पाऊँ मैं,
है रंगमंच जीवित कितना भड़कीला सा,
निर्जीव-सजीव सा अपना पत्र निभाऊं मैं |

ऋतु की कलम से..


Comments

  1. "त्रुटियों के पन्ने रोज़ पलटते रहते हैं,
    तृष्णा मन की व्याकुल गाथा कह जाती है"

    बहुत खूब :))

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  2. yes ritu u are right
    desh or jati ke nam per har roj hajaro ko bharmate hai ,
    phir bhi karoro ka ghapla karke sache neta kehlate hai,
    kya yehi hindustan ki kahahi hai,
    har dusri badi machli choti machli ko khati hai,

    ReplyDelete
  3. i'm left speechless. the slide really moved me

    ReplyDelete
  4. I reached your blog last week and have read the last few posts. Your posts are very well thought out and expressive. Very impressive.
    I look forward to reading more such posts.

    -Varun

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