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Showing posts from 2009

शुभकामनाएं व शांति

इतने दिनों तक अपनी अनुपस्थिति के लिए माफ़ी चाहती हूँ । अधिकतर समय कविताओं के साथ गुज़र रहा है। एक कविता संग्रह बनाने की कोशिश कर रही हूँ। जल्द ही आपको मेरी रचनाओं पर टिप्पणी करनी होगी। आपका साथ रहा तो, आशा है कि संग्रह जल्द ही पूरा कर लूंगी । सहसा..बैठे-बैठे कुछ पंक्तियाँ मेरी ज़हन में आई .. तुझे है याद.. कश्ती डूबती थी जब किनारे पे, समंदर की लहर में पांव अपना रोज़ धोते थे, न बाती थी, न बाती में थी लौ जलती किनारे पे, अँधेरा मौन था इतना, मगर बस साथ तेरा था । ...ऋतु की कलम से ५.११.2009 जल्द ही अपनी नयी रचनायों के साथ आऊंगी । शुभकामनाएं व शांति ऋतु सिंह

कवि महोदय

सुनिए मैं एक कहानी सुनाता हूँ, एक व्यक्ति, जिसके गुण मैं कभी न गाता हूँ एक दिन मेरे पास वो आया, बोला - " सुनिए मैं आपके लिए कुछ लाया " बड़े ही प्रेम से मैंने उससे सवाल किया, "क्यों भई, मेरे लिए तुम्हें ऐसा क्या मिल गया ? " उसने कहा - हुजूर ! एक कविता सुनाता हूँ, फिर तोहफा बाद में दिखाता हूँ मैंने कहा - " फरमाइए ! " उसने कहाँ - " ज़रा करीब तो आइये ! " तो हुज़ूर, कविता कुछ इस प्रकार थी, हिंदी में ही, किन्तु एक तलवार थी नेताजी ने बड़े प्रेम से, छोटू को बुलवाया, बोले - " भाई ये रुपये लो, इसे गाँव के गरीबों में बाँट दो, कुछ कम्बल जो बचे हैं, पिछले साल से रखे हैं, इसे भी ले जाओ, गरीबों में बाँट आओ " लाखों पोस्टरें छपवाओ, मेरा हैण्डसम सा फोटो लगवाओ, उसमे ये ज़रूर छपवाना, अब तो सभी पाएँगे दाना ही दाना, नोटों की बौछार होगी, खुशियाँ अपार होंगी, प्याज और आलू तो सस्ता बिकेगा, अब मंहगाई को कौन पूछेगा ? कल ही एक बिल्डर बुलवाओ, पासवाली नदी पर एक पुल बनवाओ, सेक्रेटरी ने पूछा - " क्या नेताजी ! क्या बात है ? पहले तो हमेशा ही गरजते थे, ये कैसी बरसात

न जाने कहाँ.. खो सी गयी!

संजो के रखा था कुछ पन्नों को, पलट के देखा तो सिमटी हुई तस्वीर दिखी, चली जो एक सांस मेरी, उठा एक बवंडर जाने कैसे, धुआं उठा मेरी आँखों से, एक तस्वीर बनी सिमटी हुई सी... सहसा न जाने कहाँ खो सी गयी, आँसुओं की बारी जो आई... घिसटते पाँव से अधरों पे गिरी, सहसा... न जाने खो सी गयी, न जाने कहाँ... खो सी गयी !!! ...ऋतु की कलम से

आपकी कोशिशों का स्वागत है|

तकिये के नीचे पड़ी थी एक किताब,पन्ने बिखरे थे,शब्द सिसकियाँ ले रहे थे॥ कलम का एक कोना झाँक रहा था॥ उसकी खड़खड़ाहट कानो में शोर मचा रही थी और स्याही की छीटें तकिए को भिगो चुकी थी॥ रंग नहीं था उनमे, लेकिन एक आवेश था, एक उत्तेजना थी॥ रुकना तो सीखा ही नहीं था ... कलम जो थी॥ ... ऋतु की कलम से