इस गगन चलूँ, उस गगन चलूँ,
मैं जीवन हूँ, न सहम चलूँ,
पग-पग पर कांटें बिछे पड़े,
सहते-सहते हर कदम चलूँ |
बचपन न देखा है मैंने,
न हि किशोरी का बल ही मिला,
निर्भय होकर न चल ही सकूँ,
न नव-युवती जीवन ही मिला |
रग-रग में आग ही लपटें हैं,
पग-पग पथरीली राहें हैं,
टूटी-फूटी सी सड़कों पर,
रोती माओं की आहें हैं |
जीवित हूँ, हूँ पर निर्जर सी,
सांसें हैं, वो पर आंहें हैं,
सकुचाई सी, घबराई सी,
धूमिल-धुसरित सी राहें हैं |
शीशे के सपने लिए हुए,
न इधर चलूँ, न उधर चलूँ,
न घबराऊँ, न सकुचाऊँ,
न रहम सहूँ, न रसम सहूँ |
इक नया सवेरा लायी हूँ,
नित नए ज्ञान का कंपन है,
मस्तक न झुकनेवाला है,
ये मानवता का 'मंथन है' |
...ऋतु की कलम से
मैं जीवन हूँ, न सहम चलूँ,
पग-पग पर कांटें बिछे पड़े,
सहते-सहते हर कदम चलूँ |
बचपन न देखा है मैंने,
न हि किशोरी का बल ही मिला,
निर्भय होकर न चल ही सकूँ,
न नव-युवती जीवन ही मिला |
रग-रग में आग ही लपटें हैं,
पग-पग पथरीली राहें हैं,
टूटी-फूटी सी सड़कों पर,
रोती माओं की आहें हैं |
जीवित हूँ, हूँ पर निर्जर सी,
सांसें हैं, वो पर आंहें हैं,
सकुचाई सी, घबराई सी,
धूमिल-धुसरित सी राहें हैं |
शीशे के सपने लिए हुए,
न इधर चलूँ, न उधर चलूँ,
न घबराऊँ, न सकुचाऊँ,
न रहम सहूँ, न रसम सहूँ |
इक नया सवेरा लायी हूँ,
नित नए ज्ञान का कंपन है,
मस्तक न झुकनेवाला है,
ये मानवता का 'मंथन है' |
...ऋतु की कलम से
खूबसूरत..उम्दा..बेहतरीन.?
ReplyDeleteशीशे के सपने लिए हुए, ..... वाह
ReplyDeleteवाह...बहुत सुन्दर
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