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'मंथन'

इस गगन चलूँ, उस गगन चलूँ,
मैं जीवन हूँ, न सहम चलूँ,
पग-पग पर कांटें बिछे पड़े,
सहते-सहते हर कदम चलूँ | 

बचपन न देखा है मैंने,
न हि किशोरी का बल ही मिला,
निर्भय होकर न चल ही सकूँ,
न नव-युवती जीवन ही मिला |

रग-रग में आग ही लपटें हैं,
पग-पग पथरीली राहें हैं,
टूटी-फूटी सी सड़कों पर,
रोती माओं की आहें हैं |

जीवित हूँ, हूँ पर निर्जर सी,
सांसें हैं, वो पर आंहें हैं,
सकुचाई 
सी, घबराई सी,
धूमिल-धुसरित सी राहें हैं |

शीशे के सपने लिए हुए,
न इधर चलूँ, न उधर चलूँ,
न घबराऊँ, न सकुचाऊँ,
न रहम सहूँ, न रसम सहूँ |

इक नया सवेरा लायी हूँ,
नित नए ज्ञान का कंपन है,
मस्तक न झुकनेवाला है,
ये मानवता का 'मंथन है' |

...ऋतु की कलम से

Comments

  1. खूबसूरत..उम्दा..बेहतरीन.?

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  2. शीशे के सपने लिए हुए, ..... वाह

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  3. वाह...बहुत सुन्दर

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आपकी कोशिशों का स्वागत है|

तकिये के नीचे पड़ी थी एक किताब,पन्ने बिखरे थे,शब्द सिसकियाँ ले रहे थे॥ कलम का एक कोना झाँक रहा था॥ उसकी खड़खड़ाहट कानो में शोर मचा रही थी और स्याही की छीटें तकिए को भिगो चुकी थी॥ रंग नहीं था उनमे, लेकिन एक आवेश था, एक उत्तेजना थी॥ रुकना तो सीखा ही नहीं था ... कलम जो थी॥ ... ऋतु की कलम से

श्यामल स्मृति

समेटी चाँद की किरणे, बिखेरी सुरमई सुबह, सनी आलाप में आवाज़, घनी थी बादलों की साज़, सजाई सपनो की दुनिया, चला मैं फासलों के साथ, छिटकते कण मेरी साँसों के, श्यामल थी मेरी आवाज़ | करों में थाम के सपने, उरों में बाँध आशाएं, चला मैं बादलों के साथ, थमा मैं बादलों के साथ, कड़ी एक स्नेह की, रोके खड़ी, मुझको है हर-पल-क्षण, रुका मैं आँधियों से और चला मैं आँधियों के साथ | तटों पे आके लहरें, आती हैं, रुक जाती एक पल को, मुझे आभास क्यूँ होता है तेरे साथ होने का, चुरायी याद की परतें, मेरी पूछे बिना मुझ बिन, कुरेदी प्रेम की पाती, लिखी जो तारे हर पल गिन | मेरे कमरे में कलमों की है इक गट्ठर अँधेरे में, है पन्नो में तेरे शब्दों की मदमस्ती अँधेरे में, सहेजी उसकी दृष्टि, अपनी दृष्टि में न जाने कब, वो मेरे साथ आ पहुंची, जो तेरे साथ थी एक दिन | तेरी परछाई भी मेरा पता क्यूँ खोज लेती है, तेरे आने का अंदेसा मुझे हर रोज़ देती है, झरोखे से मैं तुझको देखता हूँ बंद आँखों से, भुलाना चाहूं भी तो याद तेरी आ ही जाती है | ...ऋतु की कलम से