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युगांतर

विभक्ति प्रेम की और द्वेष श्यामल है अँधेरे में,
तनी आवाज़, नैतिकता, समाहित मन के घेरे में,
चवन्नी आठ, कंचा पाँच, लेके चल पड़ा इक दिन,
फटी थी जेब, उसमे हाथ, चवन्नी था रहा मैं गिन |
किनारा था सड़क का,
और मेरे पास एक डिबिया,
थी उसमे बंद माँ की आस,
थे कुछ सपने मेरे कुछ ख़ास,
मैं चलते-चलते न जाने,
सिसक उठता था अनजाने,
मैं कहता था वो लौटेगा,
वो कहती थी, न जाने कब,
मैं कहता था कि शायद प्रेम का आभास होगा तब,
पहाड़ी पर खड़ा मैं बंद आँखों से हथेली में,
उठा लाया, वो रिश्ते, जो थी, बीती इक पहेली में,
उठा अपना मैं झोला, खोजता था खत् पिताजी का,
जो भीगी थी अभी तक, और सिलवट पाँच थी उसमे |
मैं अपनी लेखनी को दे रहा आवाज़ उनकी आज,
सघन बदल भिगोता है अचानक तन को मेरे आज,
कोई सुन ले मेरे क़दमों की खामोशी, 
मेरी आँगन की तुलसी, और मेरी लेखनी का राज़,
सिसकते और सिमटते रास्ते ने, दी मुझे आवाज़,
मेरी आँगन की तुलसी और मेरी लेखनी का राज़ |

...ऋतु की कलम से
 

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तकिये के नीचे पड़ी थी एक किताब,पन्ने बिखरे थे,शब्द सिसकियाँ ले रहे थे॥ कलम का एक कोना झाँक रहा था॥ उसकी खड़खड़ाहट कानो में शोर मचा रही थी और स्याही की छीटें तकिए को भिगो चुकी थी॥ रंग नहीं था उनमे, लेकिन एक आवेश था, एक उत्तेजना थी॥ रुकना तो सीखा ही नहीं था ... कलम जो थी॥ ... ऋतु की कलम से

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