Skip to main content

'खुद का निर्माण मैं करता हूँ'

मन की अग्नि, विस्तृत है जल,
तन समाधीन को तरसा है,
कभी उहा -पोह, मन का है द्वेष,
जिस दुविधा में तू भटका है,
एक तिलक लहू का माथे पे,
एक केश बंधा, शिव की जटा,
दुर्बल, मायूस खड़ा होकर,
तू क्यूँ है, जर्जर नीरस सा,
आवेग न क्यूँ, आवेश न क्यूँ,
चला मंद-मंद मुस्काता सा,
किसकी किस्मत पे हँसता है,
अपना ही हास तू करता है,

एक तेज है माथे पर उभरा,
एक श्वास में आग की लपटे हैं,
है पथविहीन ये सीमाएं,
टूटे-फूटे से रस्ते हैं,
मैं चला वहां तू देख ज़रा,
खुद का निर्माण मैं करता हूँ,
वो माटी की मूरत से खुद,
अपना इतिहास मैं रचता हूँ,

मन की करुणा, तन का आवेग,
सृष्टि की रचना कर देगा,
सहसा आँचल का धागा ही,
जीवन परिवर्तित कर देगा,
इस मूक अवस्था में मेरी,
रचनायें कटु लगे एक क्षण,
वह भी अब मुझसे दूर नहीं,
जिसका इतिहास मैं रचता हूँ,
मैं चला वहीँ तू देख जहाँ,
खुद की रचना मैं करता हूँ,

अब पाप-पुण्य का ज्ञान नहीं,
अब अकस्मात् ही ठहर गया,
जब ठहरा तो, मैंने पाया,
कड़ियाँ हाथों में बंधी पड़ी,
निर्जल शरीर में कम्पन थी,
अज्ञात से डर की सिहरन थी,
जब निद्रा से मैं जागा हूँ,
आँखें अंधियारी लगती हैं,
कानों में कोई सुर न तान,
निद्रा आँखों में जगती है,
मैं भूल गया अपनी रचना,
अब अकस्मात् मैं जगता हूँ,
इस जीवन में जब समय मिला,
खुद का निर्माण मै करता हूँ |

ऋतु की कलम से.. 

Comments

  1. रचना निसंदेह बेहतरीन है!

    ReplyDelete
  2. thks for so nice kavta...likhne wala to mila near frnd circle me good going ap likhte rahen mai padhta rahunga..

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

आपकी कोशिशों का स्वागत है|

तकिये के नीचे पड़ी थी एक किताब,पन्ने बिखरे थे,शब्द सिसकियाँ ले रहे थे॥ कलम का एक कोना झाँक रहा था॥ उसकी खड़खड़ाहट कानो में शोर मचा रही थी और स्याही की छीटें तकिए को भिगो चुकी थी॥ रंग नहीं था उनमे, लेकिन एक आवेश था, एक उत्तेजना थी॥ रुकना तो सीखा ही नहीं था ... कलम जो थी॥ ... ऋतु की कलम से

'मंथन'

इस गगन चलूँ, उस गगन चलूँ, मैं जीवन हूँ, न सहम चलूँ, पग-पग पर कांटें बिछे पड़े, सहते-सहते हर कदम चलूँ |  बचपन न देखा है मैंने, न हि किशोरी का बल ही मिला, निर्भय होकर न चल ही सकूँ, न नव-युवती जीवन ही मिला | रग-रग में आग ही लपटें हैं, पग-पग पथरीली राहें हैं, टूटी-फूटी सी सड़कों पर, रोती माओं की आहें हैं | जीवित हूँ, हूँ पर निर्जर सी, सांसें हैं, वो पर आंहें हैं, सकुचाई  सी,  घबराई सी, धूमिल-धुसरित सी राहें हैं | शीशे के सपने लिए हुए, न इधर चलूँ, न उधर चलूँ, न घबराऊँ, न सकुचाऊँ, न रहम सहूँ, न रसम सहूँ | इक नया सवेरा लायी हूँ, नित नए ज्ञान का कंपन है, मस्तक न झुकनेवाला है, ये मानवता का 'मंथन है' | ...ऋतु की कलम से

श्यामल स्मृति

समेटी चाँद की किरणे, बिखेरी सुरमई सुबह, सनी आलाप में आवाज़, घनी थी बादलों की साज़, सजाई सपनो की दुनिया, चला मैं फासलों के साथ, छिटकते कण मेरी साँसों के, श्यामल थी मेरी आवाज़ | करों में थाम के सपने, उरों में बाँध आशाएं, चला मैं बादलों के साथ, थमा मैं बादलों के साथ, कड़ी एक स्नेह की, रोके खड़ी, मुझको है हर-पल-क्षण, रुका मैं आँधियों से और चला मैं आँधियों के साथ | तटों पे आके लहरें, आती हैं, रुक जाती एक पल को, मुझे आभास क्यूँ होता है तेरे साथ होने का, चुरायी याद की परतें, मेरी पूछे बिना मुझ बिन, कुरेदी प्रेम की पाती, लिखी जो तारे हर पल गिन | मेरे कमरे में कलमों की है इक गट्ठर अँधेरे में, है पन्नो में तेरे शब्दों की मदमस्ती अँधेरे में, सहेजी उसकी दृष्टि, अपनी दृष्टि में न जाने कब, वो मेरे साथ आ पहुंची, जो तेरे साथ थी एक दिन | तेरी परछाई भी मेरा पता क्यूँ खोज लेती है, तेरे आने का अंदेसा मुझे हर रोज़ देती है, झरोखे से मैं तुझको देखता हूँ बंद आँखों से, भुलाना चाहूं भी तो याद तेरी आ ही जाती है | ...ऋतु की कलम से